जब गांधी फैमिली के खिलाफ कांग्रेस में खड़ा हो गया था ‘Thursday Club’, कर लिया कई बड़े पदों पर कब्जा Dailyrojgarnews.com


साल था 1977…देश में इमरजेंसी हटे कुछ ही महीने हुए थे. इंदिरा गांधी की हार के बाद देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार यानी मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी की सत्ता का दौर चल रहा था. लोगों में कांग्रेस और इंदिरा गांधी को लेकर जबरदस्त गुस्सा चुनावी हार के रूप में सामने आया था. इमरजेंसी में लिए गए काले फैसलों को नई सरकार द्वारा एक-एक कर पलटा जा रहा था. 1977 की शुरुआत में हुए चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस में भी गांधी फैमिली यानी इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की जोड़ी के खिलाफ आवाज बुलंद हो रही थी. पार्टी संगठन से लेकर राज्यों की इकाई तक बगावत के सुर बुलंद हो रहे थे.

कांग्रेस के नेता-कार्यकर्त्ता पार्टी की इस हालत का जिम्मेदार मां-बेटे की इस जोड़ी को मान रहे थे. कई गुट गांधी फैमिली की बादशाहत को चुनौती दे रहे थे. उस दौर में इंदिरा गांधी के करीबी नेता रहे और बाद में राष्ट्रपति के पद तक पहुंचने वाले प्रणब मुखर्जी तब की कांग्रेस में आंतरिक हालात का विस्तार से वर्णन अपनी किताब The Dramatic Decade में करते हैं.

(फोटो क्रेडिटः इंडिया टुडे आर्काइव)

प्रणब मुखर्जी लिखते हैं- ‘राष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले टूट दिखी यूथ कांग्रेस में. लोकसभा चुनाव में हार के तुरंत बाद पार्टी अध्यक्ष डी के बरुआ ने संजय गुट की अंबिका सोनी की जगह प्रियरंजन दास मुंशी को नियुक्त कर दिया. यहां इतिहास एक पूरा यू-टर्न ले रहा था. तब मुझे याद आया कि यही बरुआ थे जिन्होंने संजय गांधी को खुश करने के लिए मेरे ही घर पर इन्हीं दासमुंशी को यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने को कहा था. तब संजय गांधी यूथ कांग्रेस पर नियंत्रण बढ़ाना चाहते थे और दासमुंशी को अपने खांचे में फिट नहीं पाते थे. अब वही कांग्रेस अध्यक्ष बरुआ हैं जिन्होंने हार के बाद संजय गांधी का प्रभाव कम होते ही इन्हीं दासमुंशी को दोबारा यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया.

12-15 अप्रैल 1977 की रिव्यू मीटिंग में कांग्रेस की हार के लिए यूथ कांग्रेस की ‘करतूतों’ को तमाम पार्टी संगठन की प्रदेश इकाइयों ने जिम्मेदार ठहराया. यूथ कांग्रेस का चुनाव एक साल में कराने का फैसला लिया गया और जनसंख्या नियंत्रण जैसे संजय गांधी के 5 पॉइंट सूत्र को बिसरा दिया गया.’

प्रणब मुखर्जी आगे लिखते हैं- ‘गांधी फैमिली के उन मुश्किल दिनों में मैंने इंदिरा गांधी और संजय गांधी के साथ काफी वक्त बिताया. इंदिरा गांधी उस वक्त 12 वेलिंगटन क्रिसेंट रोड के आवास पर शिफ्ट हो गई थीं, मेनका गांधी संजय गांधी की मदद कर रही थीं जो कई एजेंसियों की जांच का सामना कर रहे थे, साथ ही मेनका गांधी अपना अखबार सूर्या भी चला रही थीं.

भविष्य के प्लान और कदमों को लेकर इंदिरा गांधी से मेरी कई बार बात हुई. विधानसभा चुनावों के बाद हमने लोगों से संपर्क करना शुरू किया. जिनमें शामिल थे- बी. पी. मौर्य, खुर्शीद आलम खान, ए. आर. अंतुले, भागवत झा आजाद, सरोज खापार्दे, मारग्रेट अल्वा, प्रतिभा सिंह, वेंकट स्वामी और बी. शंकरानंद.

(फोटो क्रेडिटः इंडिया टुडे आर्काइव)

संजय गांधी ने मुझे आगे की रणनीति के तहत युवा कांग्रेसियों का एक गुट बनाने को कहा. मैंने इसके लिए ललित माकन और दिल्ली के कई युवा नेताओं से बात की. लोकसभा में इंदिरा गांधी के मामलों को उठाने का जिम्मा वसंत साठे ने उठाया तो राज्यसभा में कल्पनाथ राय ने. हम यूथ कांग्रेस को लेकर सीडब्ल्यूसी के फैसले तक इंतजार नहीं कर सकते थे. हमने अपने हिसाब से यूथ कांग्रेस नेताओं को संगठित करना शुरू कर दिया. इंदिरा और संजय गांधी से कई दौर की बातचीत के बाद हमने यूथ नेताओं का एक फोरम बनाया.

दिल्ली के वीपी हाउस में हमने इसकी मीटिंग बुलाई. जिसमें रामचंद्र रथ, गुलाम नबी आजाद, तारिक अनवर और ललित माकन समेत 17 युवा नेताओं ने हिस्सा लिया. मैंने इसकी अध्यक्षता की. हमने रामचंद्र रथ को कन्विनर बनाकर यूथ फोरम की औपचारिक शुरुआत कर दी. 1978 में यूथ कांग्रेस में टूट से पहले हम हर राज्य में अपना संगठन तैयार कर चुके थे और हजारों यूथ कांग्रेस के नेताओं ने इसे ज्वाइन कर लिया था. बंगाल में सोमेन मित्रा इसकी अगुवाई कर रहे थे. तब कोई नहीं जानता था कि हमारे फोरम के ये युवा नेता अगले कुछ सालों में कांग्रेस की पॉलिटिक्स में अहम रोल निभाने वाले थे.

इस तैयारी के कई महीनों बाद इंदिरा गांधी फिर से एक्टिव हुईं और उन्होंने देशभर का दौरा शुरू किया. वे पवनार में विनोभा भावे से मिलीं और पटना में जेपी से. यूपी, बिहार और आंध्र में उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुट रही थी. मैसेज साफ था कि भीड़ जुटाने की उनकी क्षमता कम नहीं हुई है. जनता पार्टी और सरकारी तबके से हमपर हमले तेज हो रहे थे लेकिन इंदिरा गांधी की सभाओं में जुट रही भीड़ हमारा उत्साह बढ़ा रही थी कि हम वर्तमान संकट से उबर सकते हैं.

(फोटो क्रेडिटः इंडिया टुडे आर्काइव)

अब हमने पार्टी के अंदर उनकी अथॉरिटी दोबारा स्थापित करने के लिए ग्राउंड वर्क शुरू कर दिया. कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाने के लिए जारी सिग्नेचर कैंपेन के बीच बरुआ ने खुद ही इस्तीफा दे दिया और केबी रेड्डी कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए. लेकिन नए अध्यक्ष के चुनाव और नई टीम बनने के बावजूद संकट खत्म नहीं हुआ.

पार्टी का एक गुट तो इंदिरा गांधी को कलेक्टिव लीडरशिप का हिस्सा मानने तक को तैयार नहीं था और संगठन में उनके समर्थकों को लगातार साइडलाइन किया जा रहा था. यहां तक कि जब वे देश में अलग-अलग जगहों के दौरे पर जाती थीं तो लोकल नेता उनके कार्यक्रमों से दूरी बना लेते थे. पार्टी हाईकमान के सपोर्ट के नाम पर लोकल नेता दूरी बना रहे थे. इसी बीच कांग्रेस संसदीय दल की बैठक हुई जिसमें कल्पनाथ राय और वसंत साठे को छोड़कर अधिकांश उन नेताओं को जगह मिली जो इंदिरा गांधी से खुद को अलग कर चुके थे. पार्टी के कई नेता ‘इंदिरा गांधी और उनके तथाकथित कॉकस’ को टारगेट कर लगातार बयानबाजी कर रहे थे और पार्टी नेतृत्व मौन था.

इस बीच, अचानक कांग्रेस के अंदर एक नया प्रेशर ग्रुप उभर आया, जिसे ‘Thursday Club’ नाम से जाना जाता था. इस ग्रुप ने कांग्रेस संसदीय दल पर प्रभाव जमाने की हर संभव कोशिश की. इस हिडेन गुट में असम से बिपिन पाल दास, बंगाल से अमजद अली, महाराष्ट्र से विट्ठल गाडगिल, यूपी से देवेंद्र द्विवेदी और केरल से डॉ. वी. ए. सैय्यद मोहम्मद शामिल थे. इन्होंने घोषित किया कि इनके टारगेट पर ‘संजय गांधी का माफिया गैंग’ है. लेकिन, जल्द ही इन लोगों ने इंदिरा गांधी को भी निशाने पर लेना शुरू कर दिया. पार्टी के अंदर अचानक बने इस गुट ने कांग्रेस संसदीय दल के चुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन भी किया. सरदार अमजद अली सचिव चुने गए और बिपिन पाल दास चीफ व्हिप चुने गए. पार्टी के टूटने तक वाई. बी. चह्वाण ने इस गुट का बखूबी इस्तेमाल किया. हालांकि, मार्च 1978 में आंध्र प्रदेश-कर्नाटक और महाराष्ट्र के चुनावों के बाद ये ग्रुप अचानक ताश के पत्तों की तरह बिखर गया.

(फोटो क्रेडिटः इंडिया टुडे आर्काइव)

उधर, संगठन के अंदर बंगाल में भी लड़ाई छिड़ी हुई थी. विधानसभा चुनाव में हार के बाद संग्राम रुकने का नाम नहीं ले रहा था. हालांकि, इस चुनाव के दौरान मैंने सहमति बनवाने, घोषणापत्र तैयार करवाने और फंड जुटाने में पूरी मेहनत की थी. इसके लिए डीपी चटोपाध्याय, अरुण मित्रा, डॉ. गोपाल दास नाग, प्रियरंजन दासमुंशी, प्रफुल्ल कांति घोष और सिद्धार्थ शंकर रे के साथ कई दौर की बातचीत की. लेकिन मुझे केवल डॉ. नाग और अरुण मित्रा से ही सपोर्ट मिला. दासमुंशी के विरोध का सामना कर रहे अरुण मित्रा ने चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेते हुए प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. वे निहायत ही भद्र इंसान थे लेकिन ग्रुप पॉलिटिक्स के शिकार हो गए.

(संजय गांधी/ फोटो क्रेडिटः इंडिया टुडे आर्काइव)

संजय गांधी के सपोर्टर्स का एक ग्रुप विधायक अब्दुस सत्तार को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहता था जबकि उनके विरोधी पूर्वी मुखर्जी को. दूसरी ओर बरकत और मैं प्रो-इंदिरा माहौल बनाने के लिए काम कर रहे थे. मुझे समर्थन हासिल था- नुरुल इस्लाम का, आनंद मोहन विश्वास, गोविंद नस्कर, सोमेन मित्रा, देबप्रसाद रॉय, बीरेंद्र मोहंती और बरकत का. हमने तैयारी शुरू की ताकि अब्दुस सत्तार के पक्ष में पीसीसी का बहुमत जुटा सकें. मैंने जिलों का दौरा किया और पीसीसी मेंबर्स से निजी तौर पर मुलाकातें कीं. हमारे ग्रुप के तमाम नेताओं ने अलग-अलग जिलों में जाकर बहुमत जुटाने की कोशिश की. 12 अगस्त 1977 को चुनाव की तारीख तय हुई. सोमेन मित्रा ने बड़े बैनर लगवाए. लेकिन हमारी कोशिशें सफल नहीं हो सकीं. बंगाल कांग्रेस के बड़े नेताओं सिद्धार्थ शंकर रे, डीपी चटोपाध्याय, प्रियरंजन दासमुंशी और सुब्रत मुखर्जी ने पूर्वी मुखर्जी के पक्ष में बहुत मेहनत की और हम फेल हो गए. अब्दुस सत्तार पूर्वी मुखर्जी से 60 वोटों से हार गए.

उधर, दिल्ली से हमारे नेताओं की गिरफ्तारी की खबरें रेडियो पर आने लगीं और इससे सियासत फिर गर्माने लगी. मैं दिल्ली के लिए रवाना हो गया. पहले आर. के. धवन, यशपाल कपूर समेत कई नेताओं की गिरफ्तारी की खबरें आईं, फिर 3 अक्टूबर 1977 को सीबीआई ने इंदिरा गांधी को भी गिरफ्तार कर लिया. एक पत्रकार से मुझे जब ये सूचना मिली तो मैं घर पर था. उसने मुझे बताया कि इंदिरा गांधी के साथ केडी मालवीय, एचआर गोखले, पीसी सेठी और डीपी चटोपाध्याय की भी गिरफ्तारी हुई है और मेरी भी गिरफ्तारी हो सकती है. मेरी पत्नी फिल्म देखने गई थीं, मैं अपने पाइप, टोबैको, माचिस और एक छोटे सूटकेस के साथ तैयार हो गया जेल जाने के लिए और लॉन में वेट करने लगा. मैंने तय किया था कि बेल के लिए आवेदन नहीं दूंगा और जेल में लंबा समय बिताने के लिए मैं तैयार था. रात 11 बजे तक मैं इंतजार करता रहा लेकिन पुलिस नहीं आई. फिर मैंने पत्नी से कहा कि पुलिस का इंतजार करने की जगह इंदिरा गांधी के आवास पर चलते हैं और देखते हैं कि वहां क्या हो रहा. हमने स्टाफ के पास नोट छोड़ दिया कि अगर पुलिस आए तो 12 वेलिंगटन क्रिसेंट का पता बता दें.

(राजीव गांधी, इंदिरा गांधी और संजय गांधी/ फोटो क्रेडिटः AFP)

संजय और राजीव गांधी वहां नहीं थे और बाद में आए. मुझे वहां देखकर दोनों हैरान हुए. उन्हें किसी ने बताया था कि पुलिस ने मुझे पहले ही उठा लिया है. हमने अगले दिन का प्लान बनाया. अगले दिन पुलिस लाइन गए तो बताया गया कि इंदिरा को पुलिस कोर्ट ले गई है. हम इंदिरा सपोर्टर्स और विरोधियों के प्रदर्शनों के बीच से कोर्ट पहुंचे. जहां अदालत के कटघरे में इंदिरा शांतिनिकेतन बैग लटकाए खड़ी थीं. कोर्ट से उन्हें रिहा कर दिया गया…’

इसके बाद अपने ही अंतर्विरोधों से जनता पार्टी कुनबे के बिखरने और इंदिरा गांधी की सत्ता मंक फिर से वापसी की कहानी पूरे देश को पता है. 2 जनवरी 1978 को कांग्रेस के अंर्तविरोधों के बीच इंदिरा गांधी ने INC(I) यानी कांग्रेस इंदिरा बना ली और अपने समथर्कों को एकजुट किया और चुनावी रण में उतर गईं. जनवरी 1980 में हुए चुनावों में इंदिरा गांधी प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटीं. इस चुनाव में इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली INC(I) को 353 सीटें मिलीं, जगजीवन राम की जनता पार्टी को 31 सीटें, चौधरी चरण सिंह की JP(s) को 41 सीटें, सीपीआईएम को 37 और एके एंटनी की अगुवाई वाली INC(U) को 13 सीटें मिलीं.


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